Tuesday, November 30, 2010

जरा इधर भी: दिक्कत लालाजी में नहीं है

जरा इधर भी: दिक्कत लालाजी में नहीं है: "संजीव भाई, बरसों पहले छपी लालाजी की एक किताब ( फोटो-साहित्य शिल्पी से साभार) आपने और राजीव ने जो मुहिम छेड़ी है उसके लिए साधुवाद। आपने म..."

Friday, November 19, 2010

कामचोर को सलाम

पुरानी इमारत के भीतर, छत के बिलकुल करीब की  खिड़की पर एक कबूतर फड़फड़या तो उसने एक लंबा बांस उठा लिया। इतने लोगों की भीड़ में वह इकलौता था, जिसकी नजर उस परिंदे पर गई थी। थोड़ी ही  देर में कबूतर उसकी मुट्ठी में था। यह सरकारी इमारत थी और वह सरकारी मुलाजिम। काम के वक्त वह कबूतर पकड़ रहा था। मैंने मन ही मन उसे गाली थी और कामचोर हो रहे सारे सरकारी कर्मचारियों को भी। यह निश्चित ही जंगली कबूतर था। मुझसे रहा  नहीं गया तो पूछ बैठा-क्या तुम इसे खाओगे। वह कुछ न बोला। मैंने पूछा क्या पालोगे-इस बार बड़ी देर तक खामोश रहने के बाद उसने कहा-यह  जंगली है, रोकने की कितनी भी कोशिश करो उड़ जाएगा। इसे पाला नहीं जा सकता। मैंने फिर पूछा-तब तो तुमने इसे खाने के लिए ही पकड़ा है न। उसने कहा-मैं कबूतर नहीं खात। मैं हैरान था-तो क्यों पकड़ा, क्या किसी और के लिए है, क्या कोई बीमार है, क्या उसकी दवा के के लिए इसके खून और मांस का उपयोग करोगे, कई सावल मैंने दागे। उसने कहा-नहीं।
तो फिर क्यों पकड़ा। 
वह जवाब नहीं देना चाहता था शायद। मैंने जोर देकर पूछा तो उसने कहा-यह अभी बच्चा है। भटक गया है शायद।  यह या तो बिल्ली-कुत्ते का शिकार हो जाता या फिर किसी ऐसे आदमी के हाथ पड़ जाता जो इसे खा जाता। इसलिए मैंने पकड़ लिया। उसने कहा-मैं अब इसके पर कतर कर घर पर रखूंगा, जब यह बड़ा हो जाएगा  तो इसे नये परों के साथ उड़ा दूंगा। 
अब मैं सोच रहा था कि ऐसे ही  कामचोर हर सरकारी दफ्तर में क्यों नहीं होते।

Wednesday, November 17, 2010

रिसते रिश्ते

वो एक रंगकर्मी था। भावनाओं और संवेदनाओं का बड़ा कद्रदान। एक खूबसूरत दुनिया का वह ख्वाब देखा करता था। एक ऐसी दुनिया जो प्रेम से लबालब हो। उसने खुद की जिंदगी के लिए भी एक ख्वाब देखा। एक छोटे से परिवार का ख्वाब। एक ऐसी हमसफर का ख्वाब जो रसोई से लेकर थिएटर तक उसकी हमकदम हो। जिसके ख्वाब उसके ख्वाबों जैसे हों। खूबसूरत दुनिया को रचने में जो उसकी मददगार हो। उसने अपने परिवार में एक छोटी सी बिटिया की कल्पना की थी। जिसे वह ऐसे संस्कार देना चाहता था, जैसे संस्कारों की जरूरत इस दुनिया को है। लेकिन जब हकीकत का सामना हुआ तो जिंदगी नर्क हो गई। शादी एक ऐसी लड़की से हुई, जिसके लिए न तो कला का कोई अर्थ था और न ही दुनिया को खूबसूरत बनाने के जुनून से उसे कोई मतलब था। उसके लिए नारी होने का अर्थ वैसा नहीं था, जैसा वह कलाकार सोचता था। वह तो अपना अलग अस्तीत्व चाहती थी, अलग पहचान। उसके लिए मां बनने का भी कोई अर्थ नहीं था और ऐसे पचड़ों में वह पड़ना नहीं चाहती थी। वही हुआ जो होना था, खटपट बढ़ती गई। एक दिन दोनों के रास्ते अलग हो गए।
कलाकार जिंदगी से निराश नहीं था। हालात से परेशान जरूर था। परेशानी के इन्हीं दिनों में एक महिला मित्र ने उसकी भवनाओं को सहलाया। निकटता बढ़ी तो कलाकार को लगा कि यही वह किरदार है जिसकी तलाश उसे अपनी जिंदगी के लिए थी। दोनों ने तय किया और शादी कर ली। कलाकार की कल्पनाशीलता को पर लग गए। अब तो रंगमंच से घर तक हमकदम साथ थी। अब तो खूब नाटक खेले जा सकते थे। नाश्ते की टेबल पर स्क्रीप्ट  पर चर्चा हो सकती थी। घूमते-टहलते संवादों की डिजाइनिंग की जा  सकती थी। तो जिंदगी रिहर्सल में बीतने लगी। नयी बीबी अब उसके नाटक की अभिनेत्री थी और खुद निर्देशक। रिहर्सल, रिहर्सल और रिहर्सल। कलाकार खुश था, बहुत खुश। यह खुशी तब और बढ़ गई जब उसे एक और दोस्त मिल गया। यह शख्स थिएटर  से वास्ता तो नहीं रखता था, लेकिन कलाकारों की खूब इज्जत करता था। कलाकार, उसकी बीबी और उनका नया दोस्त जिंदगी के ज्यादातर लम्हों में साथ होते। नये दोस्त के आ जाने से नयी बीबी को भी जिंदगी में कुछ नया पन महसूस होने लगा। नाटकों के घिसे-पिटे संवादों की जगह असल जिंदगी के नये और ताजे संवाद सुनने को मिले तो सुकून मिला। नये दोस्त के इंद्रधनुषी जीवन के कितने ही रंग नयी बीबी के ख्वाबों में घुलने लगे। उसे लगने लगा कि नाटकों की नकली जिंदगी से बेहतर है कि असल जिंदगी के असल पलों का मजा लूटा जाए। एक रोज वह उस कलाकार को छोड़कर अपने नये साथी के साथ हो ली।
नयी बीबी और उसके नये साथी की जिंदगी मजेदार थी। दोनों को वह सब कुछ मिला जो वे चाहते थे। समय बीता। समय के साथ-साथ नये दोस्त को महसूस हुआ कि कलाकार अब भी उन दोनों के बीच मौजूद है। नयी बीबी अपने पति को भूल नहीं पा रही। जिंदगी में सबकुछ पाकर भी वह उदास है। नया दोस्त उदार नजरिये का था। उसने उससे कह दिया कि यदि ऐसा है तो वह कभी भी पुराने पति के पास लौट सकती है, उसे कतई बुरा नहीं लगेगा।
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रायपुर में इन दिनों मुक्तिबोध नाट्य समारोह चल रहा है। एक नाटक देखकर आए एक दोस्त ने संक्षिप्त कथानक सुनाया था। कथानक सुनने के बाद रिश्तों, सपनों, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, मानव अधिकार, नारी स्वतंत्रता, मर्दना तानाशाही जैसे शब्दों के बीच उलझा हुआ हूं। हो सकता है कि नाटक में इन शब्दों की विस्तृत व्याख्या की गई हो, लेकिन मैं वंचित रह गया। क्या आप इनकी व्याख्या कर मेरी मदद कर पाएंगे। (नाटक का नाम शायद कच्चे लम्हे था, और शायद इसे गुलजार ने लिखा है)

Tuesday, November 2, 2010

छोड़ो ये ना सोचो

zara idhar bhi: ... छोड़ो ये ना सोचो: "सोचता हूं कुछ लिखूं क्या लिखूंलिखने से पहले सोचना बहुत जरूरी होगा शायदऔर सोचना तो बरसों पहले ही छोड़ दिया है मैंनेसोचता कौन हैवही, जो जिंदा ..."

Wednesday, August 25, 2010

zara idhar bhi: प्लीज़, बहस कीजिये

zara idhar bhi: प्लीज़, बहस कीजिये: "मैं आपको यह खबर इसलिए नहीं दे रहा हूं, कि यह सनसनीखेज है। इस तरह की घटनाएं देश के दिगर इलाकों में नहीं होती होंगी, ऐसी भी बात नहीं। असल में ..."

Tuesday, August 24, 2010

हैरतअंगेज

zara idhar bhi: पेड़ों को भाई बनाएं

zara idhar bhi: पेड़ों को भाई बनाएं: "सुनीति यादव वृक्षों के महत्व को रेखांकित करते हुए भगवान बुद्ध ने कहा है कि वृक्ष तो असीम कृपा एवं कल्याण के स्त्रोत हैं। वे अपने लिए कुछ नही..."